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अनुभूति में देवमणि पांडेय
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इस जहाँ मे
कौन सुने अब
खूब लुभाती मुंबई
चाहत के हर मुकाम पर
छम छम करती
जग में
दिल के ज़ख़्मों को
दिलवालों की बस्ती
नहीं चलता
ना हँसते हैं ना रोते है
हाल अपना

 

  छ्म छ्म करती

छ्म छ्म करती गाती शाम
चाँद से मिलने निकली शाम

उड़ती फिरती है फूलों में
रंग बिरंगी तितली शाम

आँखों में सौ रंग भरे
आज की निखरी निखरी शाम

यादों के साहिल पर आकर
पल दो पल को उतरी शाम

ओढ़ के सिंदूरी आँचल
हँसती है शर्मीली शाम

दिन का परदा उतर गया
बड़ी अकेली लगती शाम

अलग-अलग हैं सबके ख़्वाब
सबकी अपनी-अपनी शाम

२८ अप्रैल २००८

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