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सुधियों के
देश चलेंगे |
सूरज फिर
से हुआ लाल है
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सपनों का संसार
खोजने अब सुधियों के देश चलेंगे
महानगर में सपने अपने धू-घू करते रोज जलेंगे
शापों का संत्रास
झेलते पूरा का पूरा युग बीता;
शुभाशीष का एक कटोरा अब तक है रीता का रीता
पीड़ाओं के शिलाखण्ड ये जाने किस युग में पिघलेंगे
यहाँ रहे तो
कट जाएगी सुधियों की यह डोर एक दिन;
खो देंगे पतंग हम अपनी नहीं दिखेगा छोर एक दिन
नदी नहीं है रेत - रेत है तेज धूप में पाँव जलेंगे
खेतों की मेंड़ों
पर दहके- होंगे स्वागत में पलास भी
छाँव लिए द्वारे पर अपने बैठा होगा अमलतास भी
धूल, धुएँ के धूप नगाड़े हमें देखते हाथ मलेंगे
हाथों का दम
ले आएगा पर्वत से झरना निकाल कर
सीख लिया है जीना हमने संत्रासों को भी उछालकर;
मुस्कानों के झोंके होंगे जिन गलियों से हम निकलेंगे
अपने मन के
महानगर में तुलसी के चौरे हरियाए
सुबह-शाम आरती हुई है सबने घी के दीप जलाए
मानदण्ड शुभ सुन्दरता के मेरी बस्ती से निकलेंगे
राजा अवस्थी |
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