काव्य संगम |
काव्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है पंजाबी की प्रतिष्ठित
कवियित्री अमृता प्रीतम की छह पंजाबी कविताएँ देवनागरी लिपि में,
हिन्दी अनुवाद के साथ। |
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पंजाबी की
प्रसिद्ध कवियित्री श्रीमती अमृता प्रीतम का विगत
३१ अक्तूबर को निधन हो गया। वे भारत के वरिष्ठ
साहित्यकारों में से एक थीं। उन्होंने यह सिद्ध कर
दिया कि पंजाबी कविता की अपनी एक अलग पहचान है,
उसकी अपनी शक्ति है अपना सौंदर्य है, अपना तेवर
है और वे उसका प्रतिनिधित्व करती हैं।
अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब
में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं
हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया — कविता,
कहानी और निबंध। पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित
हुयीं और देशी विदेशी अनेक भाषाओं में अनूदित भी
हुईं। वे १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८
में पंजाब सरकार के भाषा द्वारा, १९८८ में
बल्गारिया वैप्त्त्सरोव पुरस्कार
(अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८१ में भारत के
सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित हुईं।
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मेरा पता
अज मैं आपणें घर दा नंबर मिटाइआ है
ते गली दे मत्थे ते लग्गा गली दा नांउं हटाइया है
ते हर सड़क दी दिशा दा नाउं पूंझ दित्ता है
पर जे तुसां मैंनूं ज़रूर लभणा है
तां हर देस दे, हर शहर दी, हर गली दा बूहा ठकोरो
इह इक सराप है, इक वर है
ते जित्थे वी सुतंतर रूह दी झलक पवे
– समझणा उह मेरा घर है। |
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मेरा पता
आज मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े
– समझना वह मेरा घर है।
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इक ख़त
मैं – इक परबत्ती 'ते पई पुस्तक।
शाइद साध–बचन हाँ, जां भजन माला हाँ,
जां कामसूत्र दा इक कांड,
जो कुझ आसण 'ते गुप्त रोगां दे टोटके,
पर जापदा – मैं इन्हां विचों कुझ वी नहीं।
(कुझ हुंदी तां ज़रूर कोई पढ़दा)
ते जापदा इक क्रांतिकारीआं दी सभा होई सी
ते सभा विच जो मत्ता पास होईआ सी
मैं उसे दी इक हथ–लिखत कापी हाँ।
ते फेर उत्तों पुलिस दा छापा
ते कुझ पास होईआ सी, कदे लागू न होईआ
सिर्फ़ 'कारवाई' खातर सांभ के रखिआ गिआ।
ते हुण सिर्फ़ कुझ चिड़िआं अउदीआं
चुझ विच तीले लिअउंदीआं
ते मेरे बदन उत्ते बैठ के
उह दूसरी पीढ़ी दा फिकर करदीआं।
(दूसरी पीढ़ी दा फिकर किन्ना हसीन फिकर है!)
पर किसे उपराले लई चिड़िआं दे खम्ब हुंदे हन
ते किसे मते दा कोई खम्ब नहीं हुंदा।
(जां किसे मते दी कोई दूसरो पीढ़ी नहीं हुंदी?) |
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एक ख़त
मैं – एक आले में पड़ी पुस्तक।
शायद संत–वचन हूँ, या भजन–माला हूँ,
या काम–सूत्र का एक कांड,
या कुछ आसन, और गुप्त रोगों के टोटके
पर लगता है मैं इन में से कुछ भी नहीं।
(कुछ होती तो ज़रूर कोई पढ़ता)
और लगता – कि क्रांतिकारियों की सभा हुई थीं
और सभा में जो प्रस्ताव रखा गया
मैं उसी की एक प्रतिलिपि हूँ
और फिर पुलिस का छापा
और जो पास हुआ कभी लागू न हुआ
सिर्फ़ कार्रवाई की ख़ातिर संभाल कर रखा गया।
और अब सिर्फ़ कुछ चिड़ियाँ आती हैं
चोंच में कुछ तिनके लाती हैं
और मेरे बदन पर बैठ कर
वे दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र करती हैं
(दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र कितनी हसीन फ़िक्र है!)
पर किसी भी यत्न के लिए चिड़ियों के पंख होते हैं,
पर किसी प्रस्ताव का कोई पंख नहीं होता।
(या किसी प्रस्ताव की कोई दूसरी पीढ़ी नहीं होती?)
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तू नहीं आया
चेतर ने पासा मोड़िया, रंगां दे मेले वास्ते
फुल्लां ने रेशम जोड़िया – तू नहीं आया
होईआं दुपहिरां लम्बीआं, दाखां नू लाली छोह गई
दाती ने कणकां चुम्मीआं – तू नहीं आया
बद्दलां दी दुनीआं छा गई, धरती ने बुक्कां जोड़ के
अंबर दी रहिमत पी लई – तू नहीं आया
रुकखां ने जादू कर लिआ, जंग्गल नू छोहंदी पौण दे
होंठों 'च शहद भर गिआ – तू नहीं आया
रूत्तां ने जादू छोहणीआं, चन्नां ने पाईआं आण के
रातां दे मत्थे दौणीआं – तू नहीं आया
अज फेर तारे कह गए, उमरां दे महिलीं अजे वी
हुसनां दे दीवे बल रहे – तू नहीं आया
किरणां दा झुरमुट आखदा, रातां दी गूढ़ी नींद चों
हाले वी चानण जागदा – तू नहीं आया |
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तू नहीं आया
चैत ने करवट ली, रंगों के मेले के लिए
फूलों ने रेशम बटोरा – तू नहीं आया
दोपहरें लंबी हो गईं, दाख़ों को लाली छू गई
दरांती ने गेहूँ की वालियाँ चूम लीं – तू नहीं आया
बादलों की दुनिया छा गई, धरती ने दोनों हाथ बढ़ा कर
आसमान की रहमत पी ली – तू नहीं आया
पेड़ों ने जादू कर दिया, जंगल से आई हवा के
होंठों में शहद भर गया – तू नहीं आया
ऋतु ने एक टोना कर दिया, चाँद ने आकर
रात के माथे झूमर लटका दिया – तू नहीं आया
आज तारों ने फिर कहा, उम्र के महल में अब भी
हुस्न के दिये जल रहे हैं – तू नहीं आया
किरणों का झुरमुट कहता है, रातों की गहरी नींद से
रोशनी अब भी जागती है – तू नहीं आया
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धुप्प दा टोटा
मैनू उह वेला याद ए—
जद इक टोटा धुप्प सूरज दी उँगली फड़. के
न्हेरे दा मेला वैखदां भीड़ां दे विच्च गुआचिया।
सोचदी हाँ — सहिम दा ते सुंज दा वी साक हुंदा ए
मैं जु इस दी कुछ नहीं लगदी
पर इस गुआचे बाल ने इक हत्थ मेरा फड़ लिआ
तू किते लभदा नहीं—
हत्त्थ नू छोंहदा पिआ निक्का ते तत्ता इक साह
ना हत्त्थ दे नाल परचदा ना हत्त्थ दा खांदा वसाह
न्हेरा किते मुकदा नहीं
मेले दे रौले विच्च वी है इक आलम चुप्प दा
ते याद तेरी इस तरहाँ जिओं इक टोटा धुप्प दा . . .
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धूप का टुकड़ा
मुझे वह समय याद है—
जब धूप का एक टुकड़ा सूरज की उंगली थाम कर
अंधेरे का मेला देखता उस भीड़ में खो गया।
सोचती हूँ : सहम का और सूनेपन का एक नाता है
मैं इसकी कुछ नहीं लगती
पर इस खोए बच्चे ने मेरा हाथ थाम लिया
तुम कहीं नहीं मिलते
हाथ को छू रहा है एक नन्हा सा गर्म श्वास
न हाथ से बहलता है न हाथ को छोड़ता है
अंधेरे का कोई पार नहीं
मेले के शोर में भी ख़ामोशी का आलम है
और तुम्हारी याद इस तरह जैसे धूप का एक टुकड़ा...
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अश्वमेध यज्ञ
इक चेतर दी पुनियाँ सी—
कि चिट्टा दुध मेरे इश्क का घोड़ा
देसां से बदेसां नू गाहण तुरिआ . . . .
सारा शरीर सच वांग चिट्टा
ते सउले कंन विरहा रंग दे।
सोने दा इक पतरा उहदे मत्त्थे दे उत्ते
" इह दिग विजय दा घोड़ा—
कोई बलवान है तां इस नू फड़े ते जित्ते "
ते जीकण इस यज्ञ दा इक नेम है—
इह जित्ते वी खलोता मैं गीत दान कीते
ते कई थावें मैं हवन तारिआ,
सो जिसने वी जितणा चाहिया, वह हारिआ।
आज उमर वाली अउध मुकी है
ते इह सलामत मेरे कोल मुड़िआ है,
पर कही अणहोणी—
कि पुन्न दी इच्छा नहीं, ना फल दी लालसा बाकी
इह चिट्टा दुध मेरे इश्क दा घोड़ा
मारण नहीं हुंदा . . .मारण नहीं हुंदा . . .
बस इहीओ सलामत रहे पूरा रहे!
मेरा अश्वमेध यज्ञ अधूरा है, तां अधूरा रहै।
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अश्वमेध यज्ञ
एक चैत की पूनम थी
कि दूधिया श्वेत मेरे इश्क का घोड़ा
देश और विदेश में विचरने चला
सारा शरीर सच–सा श्वेत
और श्यामकर्ण विरही रंग के।
एक स्वर्णपत्र उसके माथे पर
"यह दिग्विजय का घोड़ा—
कोई सबल है तो इसे पकड़े और जीते"
और जैसे इस यज्ञ का एक नियम है
यह जहाँ भी ठहरा मैने गीत दान किये
और कई जगह हवन रचा
सो जो भी जीतने को आया वह हारा।
आज उमर की अवधि चुक गई है
यह सही सलामत मेरे पास लौटा है,
पर कैसी अनहोनी—
कि पुण्य की इच्छा नहीं, न फल की लालसा बाकी
यह दूधिया श्वेत मेरे इश्क का घोड़ा
मारा नहीं जाता . . . मारा नहीं जाता . . .
बस यह सलामत रहे, पूरा रहे!
मेरा अश्वमेध यज्ञ अधूरा है अधूरा रहे!
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इक ख़त
चन्न सूरज दो दवातां कलम ने डोबा लिया
लिखितम तमाम धरती पढ़तम तमाम लोक
साइंसदानों दोस्तों!
गोलीआं, बंदूकां ते ऐटम बनाण तों पहिलां
इह ख़त पढ़ लवो!
हुक्मरानों दोस्तों !
गोलीआं, बंदूकां ते ऐटम बनाण तों पहिलां
इह ख़त पढ़ लवो!
सितारिआं दे हरफ़ ते किरनां दी बोली, जे पढ़नी नहीं
अऊंदी
किसे आशक–अदीब तों पढ़वा लवो
किसे महबूब तों पढ़वा लवो
ते हर इक मा दी यह मात बोली
घड़ी कु बैठ जावो किसे वी थां 'ते
ते ख़त पढ़वा लवो किसे वी माँ तों
ते फेर आवो मिलो कि मुल्कां दी हद जित्त्थे है
इक हद्द मुलक दी
ते मेच के वेखो
इक हद्द इलम दी
इक हद्द इश्क दी
ते फिर दस्सो कि किस दी हद्द कित्त्थे है!
चन्न सूरज दो दवातां
आज इक डोबा लवो
ते एस ख़त दी पहुंच देवो
ते दुन्ीआं की सुख सांद दे दो अक्खर वी पा दिओ
—तुहाडी —आपनी —धरती
तुहाडा ख़त उडीकदी बड़ा फिकर करदी पई ... . . . |
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एक ख़त
चाँद सूरज दो दवातें, कलम ने बोसा लिया
लिखितम तमाम धरती, पढतम तमाम लोग
साइंसदानों दोस्तों!
गोलियाँ, बन्दूकें और एटम बनाने से पहले
इस ख़त को पढ़ लेना!
हुक्मरानों दोस्तो!
गोलियाँ, बन्दूकें और एटम बनाने से पहले
इस ख़त को पढ़ लेना!
सितारों के हरफ़ और किरनों की बोली अगर पढ़नी नहीं
आती
किसी आशिक–अदीब से पढ़वा लेना
अपने किसी महबूब से पढ़वा लेना
और हर एक माँ की यह मातृ–बोली है
तुम बैठ जाना किसी भी ठांव
और ख़त पढ़वा लेना किसी भी माँ से
फिर आना और मिलना कि मुल्क की हद है जहाँ है
एक हद मुल्क की
और नाप कर देखो
एक हद इल्म की
एक हद इश्क की
और फिर बताना कि किस की हद कहाँ है।
चाँद सूरज दो दवातें
हाथ में एक कलम लो
इस ख़त का जवाब दो
और दुनिया की खैर खैरियत के दो हरफ़ भी डाल दो
—तुम्हारी —अपनी— धरती
तुम्हारे ख़त की राह देखती बहुत फिकर कर रही . . .
("अमृता प्रीतम–चुनी
हुई कविताए" से साभार) |
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