सूरज फिर
से हुआ लाल है
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हुआ इशारा,
लपक के दौड़े
आगे बढ़ते, खाते कोड़े
पूँछ उठाये, सरपट सरपट
हम हैं जीवन
रेस के घोड़े
कसी नकेल
और खिंची लगाम
तन मन अपने हुए गुलाम
अंधी दौड़ के अंत में रोटी
अपनी किस्मत
यही कसौटी
अपनों से ही जूझ रहे हम
कौन किसी को पीछे छोड़े
ऊपर
अपने लदा सवार
ज़रा जो ठिठके, करता वार
उसका चाबुक, उसकी मार
पीठ है सहती,
बारम्बार
अपनी जीत की धुन में पागल
खून पसीना लिए निचोड़े
शौकीनों
का कारोबार
अपने लिये देह व्यापार
देख रहे वो बजा के ताली
जीते तो खुश,
हारे गाली
हम पर दाँव खेल वो जीतें
हम जस के तस रहे भगोड़े
-संजीव निगम |