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अभिव्यक्ति १७. ११. २००८

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नदी के तीर पर ठहरे

 

नदी के तीर पर ठहरे
नदी के बीच से गुज़रे
कहीं भी तो
लहर की बानगी
हमको नहीं मिलती

हवा को हो गया है क्या
नहीं पत्ते खड़कते हैं'
घरों में गूँजते खंडहर
बहुत सीने धड़कते हैं
धुएँ के शीर्ष पर ठहरे
धुएँ के बीच से गुज़रे
कहीं भी तो
नज़र की बानगी
हमको नहीं मिलती

नक़ाबें पहनते हैं दिन
कि लगता रात पसरी है
जिसे सब स्वर्ग कहते हैं
न जाने कौन नगरी है
गली के मोड़ पर
ठहरे
गली के बीच से गुज़रे
कहीं भी तो
शहर की बानगी
हमको नहीं मिलती

कहाँ मंदिर कहाँ गिरजा
कहाँ खोया हुआ काबा
कहाँ नानक कहाँ कबिरा
कहाँ चैतन्य की आभा
अवध की शाम को
ठहरे
बनारस की सुबह
गुज़रे
कहीं भी तो
सफ़र की बानगी
हमको नहीं मिलती।

--विनोद श्रीवास्तव

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