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रोशनी के वृक्ष हैं हम,
चाँदनी के कक्ष हैं हम,
पास बैठो कुछ उजालों में नहाओ तुम।
जब अमावस तम उलीचे,
जब घटा विषबेलि सींचे,
हम प्रभाती राग बन
अनुराग की गंगा बहाते,
जंगलों में, घाटियों में,
हम सुखद परिपाटियों में,
धुंध छाई बस्तियों में
हम मिलेंगे गुनगुनाते,
फूल हैं, तितली, भ्रमर हैं,
उपवनों के मदिर स्वर हैं,
सो रही संवेदनाएँ को जगाओ तुम।
जब हताशाएँ जगी हों,
व्याधियाँ मन से लगी हों,
हम तुम्हारा दर्द पी लेंगे,
हमारे पास आना,
वर्जना अवरोधती हो,
दृष्टि अंबर शोधती हो
हम बताएँगे छुपा है,
कहाँ खुशियों का ख़ज़ाना,
रु-ब-रु खुद से नहीं तुम,
फिर कहो कैसे सही तुम,
इस अंधेरे में कहाँ हो? ये बताओ तुम।।
--विष्णु विराट
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