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वानप्रस्थी ये हवाएँ
सुनो, साधो!
वानप्रस्थी ये हवाएँ- कहाँ जाएँ
वन नहीं हैं!
दूर तक सड़कें-इमारत
शोर है बस
धुएँ के बादल घिरे
हर ओर नीरस
सुनो, साधो!
इस नगर में सिर्फ़ हैं अंधी गुफ़ाएँ
वन नहीं हैं!
एक कोने में खड़ी हैं
ये ठगी-सी
बावरे दिन
वक्त है गदहा-पचीसी
सुनो साधो!
जल रही है झील- झुलसी हैं दिशाएँ
वन नहीं हैं!
सोचती ये
कहाँ नंदन-वन पुराने
उत्सवी आकाश
चिड़ियों के ठिकाने
सुनो, साधो!
क्यों अपाहिज हो रही हैं ये हवाएँ
वन नहीं हैं!
– कुमार रवींद्र
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