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अनुभूति में सुमन कुमार घई की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
कैसी वसंत ऋतु
खो चुका परिचय
चीत्कार
जीवन क्रम
प्रेम कहानी
प्रेम के दो भाव
मनदीप पुकार
मैं उसे ढूँढता हूँ
वह पेड़ टूट गया

क्षणिकाओं में-
वसंत

संकलनों में-
वसंती हवा- काश मिलो तुम भी
धूप के पाँव- गरमी की अलसाई सुबह
वर्षा मंगल– सावन और विरह
गाँव में अलाव – स्मृतियों के अलाव
गुच्छे भर अमलतास– अप्रैल और बरसात
                  शुभकामनाएँ
नया साल– नव वर्ष की मंगल वेला पर
         –नव वर्ष के गुब्बारे
जग का मेला– गुड्डूराजा

 

कैसी वसंत ऋतु

यह कैसी वसंत ऋतु आई है
ऋतुराज है आहत
कैसी यह घटा छायी है

प्राची में यह सूर्य की नहीं
विस्फोटों की लाली है
कोई कली खिलती नहीं
खिलने से पहले ही मानवता
दानवता ने
मसल डाली है

मुंडेर पर बैठी चिड़िया
हो कर भयभीत
पंख फड़फड़ाती उड़ गयी
अब वह तिनके संजोए तो कैसे
नीड़ बनाए तो कैसे—

खण्डहर बने
घर की दीवार की ओट में
आंचल के नीचे छिपाए बच्चों को बैठी माँ
सोचती कि काश वह भी
पंख फड़फड़ा उड़ पाती
पर वह तो मानव है
धरा की बन्दी है और वह
रह–रह कर आकाश को ताकती है
शायद भगवान की दया खोजती है
पर यहाँ तो रह–रह कर आग ही
बरसती है
एक ही प्रश्न कौंधता है
उस आहत मन में
बच्चों की क्षुधा मिटाएगी तो कैसे
बाप ने तो हल छोड़–
हाथ में उठा ली है बन्दूक और
कभी उगी है बन्दूक की नाल से
जीवन की फ़सल?
यहाँ पर लोभ और घृणा की
फ़सल बीजी थी न जाने
कब और किसने– जो आज
मण्डी में बिकने आयी है
यह कैसी वसन्त ऋतु आयी है

कहीं सुरभित मन्द बयार चलती नहीं
हवा में तैरती है तो बारूद की गन्ध
और आहतों का क्रन्दन
कहीं किसी भी मन में कोई उमंग नहीं
जीवन की कहीं तरंग नहीं
मानवता स्वयं ही कर रही है
ताण्डव – अपनी ही लाश पर
और जले पेड़ की डालियों से
लटकते हैं क्षत विक्षत
शरीरों के लोथड़े
यह कैसी बहार आयी है
यह कैसी वसन्त आयी है
ऋतुराज है आहत
कैसी यह घटा छायी है

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