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                     अनुभूति में 
					
					डॉ. दिनेश 
					चमोला शैलेश 
                    की रचनाएँ— 
                    दोहों में- 
					माँ 
					कविताओं में- 
					
					अनकहा दर्द 
                    
                    एक पहेली है जीवन 
                    
                    खंडहर हुआ अतीत 
                    
                    गंगा के किनारे 
                    जालिम व्यथा 
					दूधिया रात 
					धनिया की चिंता 
                    सात समुन्दर पार 
					पंखुडी 
					
                    यादें मेरे गाँव की 
                    
                    ये रास्ते 
                    
                    रहस्य 
					 
					संकलन में- 
                    पिता 
					की तस्वीर- दिव्य आलोक थे पिता 
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					खंडहर हुआ अतीत 
					 
					वर्षों के अंतराल बाद 
					जब मैं 
					महानगरों से 
					उपलब्धियों की गठडी बाँध 
					एकाएक पहुँचूँगा 
					अपने बचपन के गाँव 
					गाँव की 
					हरी-भरी वादियों में कहीं 
					डूबा होगा मेरा घर 
					जो कभी 
					रहा था अपने में 
					एक जीता-जागता इतिहास समेटे 
					किन्तु 
					अब पड़ा होगा 
					खंडहार हुए एक 
					पुराने महल की तरह 
					चौक में 
					उग आई होगी 
					दूब के साथ-साथ 
					जंगली घास की 
					कई-कई किस्में 
					कई फुट ऊपर तक 
					जिससे नहीं लग पायेगा 
					अंदेसा 
					प्रवेश द्वार का 
					खंडहर हुए 
					भवन के टूटे कमरे 
					सुनाएँगे एक साथ 
					अपनी कई-कई दास्तानें 
					मैं काई लगे 
					पत्थरों में टटोलूँगा 
					दिवंगत पिता के 
					अनुभवों की अनुगूँज 
					या फिर माँ की 
					प्रेरणाभरी कहानियों के 
					वीर व साहसी पात्र 
					खंडहर हुए घर का 
					एक-एक पत्थर (पठाल), 
					ताकता रहेगा आकाश, 
					जिसे बूढे पिता ने 
					कंधे छिल-छिल कर 
					ला-लाकर तराशा था 
					अपनी भावी संतानों के लिए 
					खंडहर की बढी हुई घास से 
					एकाएक 
					बोल उठेगी माँ की 
					चिथडे-चिथडे हुई 
					गुदडी 
					'मेरे गुदडी के लाल! 
					क्या इसीलिए 
					झेले थे मैंने व तेरे पिता ने 
					पहाड़ से भी भारी भरकम कष्ट? 
					कि एक दिन 
					यूँ ही छोड़ चल दोगे 
					तुम हमारे 
					खून-पसीने की मेहनत को 
					अलविदा कह 
					सात समुद्र पार 
					हम तबसे कर रहे हैं वास 
					दो-दो श्मशानों में 
					एक - जहाँ तुमने हमें छोड़ा था 
					और दूसरा - 
					वह कभी का मंदिर सा घर 
					जो आज 
					बदतर है स्मशान से भी 
					बोलो बोलो 
					मूर्ख क्यों खडे हो?' 
					तब कुछ नहीं बोल पाऊँगा मैं 
					महानगर की झूठी चकाचौंध व 
					गाँव तथा मातृभूमि की 
					सौंधी महक के बीच 
					त्रिशंकु सा लटक जाऊँगा मैं 
					उठेंगे प्रश्न मेरे भीतर 
					ज्वार भाटों की तरह 
					आखिर खाक उन्नति की है मैंने? 
					बहुत कुछ भौतिक पाने की चाह में  
					पैसे की हवस में  
					अपनी पहचान 
					अपनी भाषा 
					संस्कृति व मिट्टी तक का 
					अपनापन खोया है मैंने 
					बदले में पाया है 
					बिल्कुल कृत्रिम 
					खोखला व कपटी संसार 
					सचमुच मेरे भीतर का 
					यथार्थ जाग उठेगा 
					जाग उठेगी मेरे भीतर की 
					ग्रामीण ममतामई चेतना 
					और 
					धीरे-धीरे झड़ जाएगा 
					काई लगा मुखौटों का महानगर 
					तब मैं 
					फिर से 
					खण्डहर हुए 
					घर की दीवारों में 
					ढूँढता फिरूंगा 
					दिवंगत माँ की ममता  
					पिता का दुलार 
					जीवन की वास्तविकता 
					या फिर 
					खण्डहर हुआ अपना अतीत! 
					१६ अगस्त २००३
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