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 जब-जब 
खिलता है पहाड़ में 
लाल-लाल 
डगमग बुरांश का फूल 
मुझे 
अक्सर याद आते हैं 
अपने विदा हुए बूढ़े पिता  
जब-जब 
धवल हो उठती है 
रमणीय शैल मालाएँ 
बर्फ़ की विशाल प्राचीरों से  
मुझे बहुत याद आते हैं 
अपने विदा हुए बूढ़े पिता 
जब जब 
ठिठुरती है माघ की 
सर्दई धूप 
कंपकपाती है तन मन को 
मुझे 
अक्सर याद आते हैं पिता 
या फिर 
जब-जब 
तपती है धरती 
पिघलती है हिमशिलाएँ 
लहलहाती है पुण्यतोया मंदाकिनी 
मुझे 
अक्सर याद आते हैं 
अपने दिवंगत हुए बूढ़े पिता 
बूढ़े पिता 
जो कि मुझ मातृहीन के 
ममत्व का सागर थे 
मेरी अनाथता के संबल थे 
मेरी दु:खती रगों में मर्ज़ थे 
मेरे थके हारे 
व 
भटकते जीवन के गंतव्य थे 
अक्सर 
टूटी खाट में 
बुन लिया करते थे 
मेरे बिखरे जीवन के 
सतरंगे सपने 
हुक्का गुड़गुड़ाते हुए 
पिता! 
पिता ही न थे 
माँ, भाई बहिन 
और न जाने 
सांसारिक संबंधों के क्या-क्या विस्तार थे  
मेरी तड़पती अनाथता के 
बूढ़े बरगद थे पिता 
जब मैं 
भूख से बिलबिलाता 
लौटता था गर्म दुपहरी को शाला से 
तब भी 
फटे टाट के नीचे 
भूखे पेट 
समेटे रहते थे पिता 
बासी रोटियों की बहुरंगी वह 
जब मैं 
भाजी की परवाह किए बिना 
उन पर टूट पड़ता था 
तो हुक्का गुड़गुड़ाते बूढ़े पिता की 
आँखों से 
झर-झर झरते थे आँसू 
जब वे 
पोछ लेते 
टाट की फटी कतरनों से आँसू 
तो मैं 
पत्थर हुई रोटी का टुकड़ा 
उनके खुरदरे होठों पर रख देता 
वे खाया करते 
आँसुओं से नमकीन हुई 
सूखी रोटियों के ग्रास 
भरे गले से सदैव 
मुझ मूक की 
मुखर वाणी थे पिता 
आज एकाएक 
अय्यास भरे वातावरण में 
न जाने क्यों 
उभरता है चेहरा पिता का 
बार-बार 
क्या कहूँ!! 
संवेदना से उपजी 
अनकही कसक के 
दिव्य आलोक थे पिता! 
- दिनेश चमोला शैलेश 
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