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अनुभूति में प्रदीप मिश्र की रचनाएँ

कविताओं में-
तुम नहीं हो शहर में
कनुप्रिया
ज़िन्दा रहने के लिये
दुख जब पिघलता है
पहाड़ी नदी की तरह
पायदान पर
फिर कभी
फिर तान कर सोएगा
फूलों को इंतज़ार है
महानगर
मेरे समय का फलसफा
मैं और तुम
वायरस

स्कूटर चलाती हुई लड़कियाँ
सफेद कबूतर

डूबते हुए हरसूद पर-
एक दिन
जब भी कोई जाता
पाकिस्तान से विस्थापित
फैली थी महामारी
बढ़ रहा है नदी में पानी
सुनसान सड़क पर

संकलन में
नया साल- यह सुबह तुम्हारी है

  पाकिस्तान से विस्थापित

पाकिस्तान से विस्थापित होकर
मैं आया था अपने देश में
अपने देश में भी विस्थापित
होता रहा बार-बार

हर बार तोड़ी एक गृहस्थी
हर बार जोड़ी एक गृहस्थी
नई गृहस्थी हमेशा ही पुराने से
कमतर ही रही
अब फिर अस्सी वर्ष की उम्र में
उजड़ रहा हूँ हरसूद से

अस्सी वर्ष की उम्र में
उजड़ना बहुत आसान होता है
बसना नामुमकिन

मुझे सरकार ने दिया है
बहुत सारा मुआवजा
मैं आजकर रूपए
ओढ़-बिछा रहा हूँ
खूब चबा-चबाकर खा रहा हूँ
सौ-सौ के नोट
लेकिन कम्बख्त भूख है कि मिटती नहीं
नोटों के गद्दे पर वो नींद नहीं आती
जो कर्ज में गले तक डूबे रहने के बाद भी
अपनी झोपड़ी के जमीन पर आती थी
मैं हरसूद से विस्थापित हो गया
मेरा जीवन वहीं छूट गया
डूबकर मरने के लिए

मेरी सुहाग की चूड़ियाँ
लोक गीतों की डायरी
रंगोली के रंग
चौक पूरने का सामान
तुलसी का चौरा
सखी-सहेलियाँ
सबकुछ छूट गया हरसूद में
हरसूद डूब गया

अब मैं डूबने बच गई
या मैं भी डूब गई
हरसूद के साथ
कौन बताएगा मुझे

मास्टर जी ने कहा था
विकास मनुष्य को बेहतर जीवन देता है
विषय पर लेख लिखने के लिए
मैंने बहुत अच्छा लेख लिखा है
लेकिन मेरी पाठशाला और मास्टर जी
दोनों छूट गए हरसूद में
अब मैं इस लेख का क्या करूँ

विकास की कीमत इतनी ज्यादा होती है
तो क्या बुरा है अविकसित रहना।

 

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