| अनुभूति में
                    
                  ममता कालिया की रचनाएँ
                   नई रचनाओं में-पापा प्रणाम (दो कविताएँ)
 बेटा
 माँ
 लड़की
 वर्कशॉप
 छंदमुक्त में-आज नहीं मैं कल बोलूँगी
 किस कदर मासूम होंगे दिन
 दीवार पर तस्वीर की तरह
 पैंतीस साल
 यह जो मैं दरवाज़ा
 |  | यह जो मैं दरवाज़ा यह जो मैं दरवाज़ा बंद करती हूँ 
                  भड़ामटीवी की आवाज़ चौबीस तक ले जाती हूँ
 चटनी पिसने के बाद भी सिल पीसती रहती हूँ कुछ देर
 रसोई में कलछी रखती हूँ खटाक
 बाथरूम में बालटी टकरा जाती है नल से
 ग्लास अक्सर फिसल कर टूट जाते हैं मुझसे।
 यह मेरे अंदर की भाषा-शैली है
 इसकी लिपि और लपट
 मेरे जीवन में दूर-दूर तक फैली है।
 हमेशा ऐसी खुरदुरी नहीं थी यह।
 इसकी एक खुशबू थी
 कभी बगिया में
 कभी बाहों में
 रोम-रोम से निकलते थे राग और फाग
 कभी आँखें जुबान बन जातीं
 सम्बोधित रहतीं तुमसे तब तक
 जब तक
 तुम
 चुम्बनों से इन्हें चुप न कर देते।
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