| अनुभूति में
                    
                  ममता कालिया की रचनाएँ
                   नई रचनाओं में-पापा प्रणाम (दो कविताएँ)
 बेटा
 माँ
 लड़की
 वर्कशॉप
 छंदमुक्त में-आज नहीं मैं कल बोलूँगी
 किस कदर मासूम होंगे दिन
 दीवार पर तस्वीर की तरह
 पैंतीस साल
 यह जो मैं दरवाज़ा
 |  | माँ 
                  माँपुराने तख़्त पर यों बैठती हैं
 जैसे वह हो सिंहासन बत्तीसी।
 हम सब
 उनके सामान नीची चौकियों पर टिक जाते हैं
 या खड़े रहते हैं अक्सर।
 माँ का कमरा
 उनका साम्राज्य है।
 उन्हें पता है यहाँ-कहाँ सौंफ की डिबिया है और कहाँ ग्रंथ साहब
 कमरे में कोई चौकीदार नहीं है
 पर यहाँ कुछ भी
 बगैर इजाज़त छूना मना है।
 माँ जब खुश होती हैं
 मर्तबान से निकाल कर थोड़े से मखाने दे देती हैं मुट्ठी में।
 हम उनके कमरे में जाते हैं
 स्लीपर उतार।
 उनकी निश्छल हँसी में
 तमाम दिन की गर्द-धूल छँट जाती है।
 एक समाचार
 हम उन्हें सुनाते हैं अखबार से,
 एक समाचार वे हमें सुनाती हैं
 अपने मुँह जुबानी अखबार से।
 उनके अखबार में है
 हमारा परिवार, पड़ोस, मुहल्ला औऱ मुहाने की सड़क।
 अक्सर उनके समाचार
 हमारी ख़बरों से ज़्यादा सार्थक होते हैं।
 उनकी सूचनाएँ ज़्यादा सही और खरी।
 वे हर बात का
 एक मुकम्मल हल ढूँढ़ना चाहती हैं।
 बहुत जल्द उन्हें
 हमारी ख़बरें बासी और बेमज़ा लगती हैं।
 वे हैरान हैं
 कि इतना पढ़ लिख कर भी
 हम किस कदर मूर्ख हैं
 कि दुनिया बदलने का दम भरते हैं
 जबकि तकियों के गिलाफ़ हमसे बदले नहीं जाते!
 ७ सितंबर २००९ |