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नई रचनाएँ-
ज़िंदगी आँच से
जिसने थामीं थीं
पूरी हो आखिर कैसे
ये जहाँ
हम उदास रहते हैं

अंजुमन में—
चाहा था जिसे हमने
पूछूँ मैं भला कैसे
बरसों निभाया
शाम से उदासी
हज़ारों नेकिया

  चाहा था जिसे हमने

चाहा था जिसे हमने, इस जान की तरह
वो शख़्स मिल रहा है, अंजान की तरह

फिरते हैं खुदा बनके, जो लोग ज़माने में
मिलते नहीं इंसान से, इंसान की तरह

मुफ़लिस की झोपड़ी हो या शीशमहल कोई
रहना है यहाँ सबको, मेहमान की तरह

किस किस को बताओगे, इस दिल की दास्ताँ को
हर दिल को बिखरना है, अरमान की तरह

जब तक मैं समझ पाता, कुछ देर हो चुकी थी
ये वक़्त गुज़रता है, तूफ़ान की तरह

इतरा रहे हो जिसपे, वो जिस्म बेवफ़ा है
दो पल में बदलता है, बेजान की तरह

कितना है रहमदिलमेरा क़ातिल तो देखिए
वो क़त्ल कर रहा है, एहसान की तरह

२१ सितंबर २००९

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