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२६. ७. २०१०

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हरे भरे तट छोड़

 

हरे-भरे तट छोड़
झरे मरू में निर्झर झर-झर!

जंगल की दावाग्नि सरीखा
तन दहका-दहका
भूखे बँधुआ बाल श्रमिक-सा
मन बहका-बहका
जीवन कंकरीट की नगरी का
अनगढ़ पत्‍थर!
हरे-भरे तट छोड़
झरे मरू में निर्झर झर-झर!

तीर बिद्ध घायल चिडि़या-सी
हाँफ रहीं साँसे
धुँधुवाते चूल्‍हे की कच्‍ची
रोटी-सी प्‍यासें
टूटे दर्पण की छवियों जैसे
दिन, रात, प्रहर!
झरे मरू में निर्झर झर-झर!

रामायण के क्षेपक जैसे
स्‍वप्‍न अधूरे हैं
रिश्‍ते-नाते मदारियों के
सिर्फ जमूरे हैं
बहुरूपिया समान जिंदगी
भटक रही दर-दर!
झरे मरू में निर्झर झर-झर!

नच ले, नच ले की धुन पर
पायलिया छनक रही
मृत्यु-माल अब लकुवाई
गर्दन में लटक रही
हँसते, गाते, रोते आखिर
पूरा हुआ सफर!
झरे मरू में निर्झर झर-झर!

--मधु भारतीय

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