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                            | 
                            हरे भरे 
                            तट छोड़ |  
                            |  | हरे-भरे तट छोड़ झरे मरू में निर्झर झर-झर!
 
 जंगल की दावाग्नि सरीखा
 तन दहका-दहका
 भूखे बँधुआ बाल श्रमिक-सा
 मन बहका-बहका
 जीवन कंकरीट की नगरी का
 अनगढ़ पत्थर!
 हरे-भरे तट छोड़
 झरे मरू में निर्झर झर-झर!
 
 तीर बिद्ध घायल चिडि़या-सी
 हाँफ रहीं साँसे
 धुँधुवाते चूल्हे की कच्ची
 रोटी-सी प्यासें
 टूटे दर्पण की छवियों जैसे
 दिन, रात, प्रहर!
 झरे मरू में निर्झर झर-झर!
 
 रामायण के क्षेपक जैसे
 स्वप्न अधूरे हैं
 रिश्ते-नाते मदारियों के
 सिर्फ जमूरे हैं
 बहुरूपिया समान जिंदगी
 भटक रही दर-दर!
 झरे मरू में निर्झर झर-झर!
 
 नच ले, नच ले की धुन पर
 पायलिया छनक रही
 मृत्यु-माल अब लकुवाई
 गर्दन में लटक रही
 हँसते, गाते, रोते आखिर
 पूरा हुआ सफर!
 झरे मरू में निर्झर झर-झर!
 
 --मधु भारतीय
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                   | इस सप्ताह 
                   गीतों में- अंजुमन में- छंदमुक्त में- दोहों में- पुनर्पाठ में- 
 
                     
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                  अनुभूति का 
                        ३० अगस्त का अंक श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेषांक होगा। 
                  इस अंक के लिये गीत, गजल, छंदमुक्त, दोहा, मुक्तक, हाइकु आदि 
                  विधाओं में श्रीकृष्ण से संबंधित रचनाएँ आमंत्रित हैं। 
                  रचना भेजने की अंतिम तिथि २० अगस्त है। पता इस पृष्ट पर ऊपर 
                  दिया गया है। |  
 
                     
                     पिछले सप्ताह१९ 
                     जुलाई २०१० के अंक में
 
                      पुनर्पाठ में- 
                   गीतों में- अंजुमन में- छंदमुक्त में- क्षणिकाओं में- 
                   अन्य पुराने अंक |  |