|  | मौन व्रत ले के बैठे हों संवाद जब,
 हमको रह रह के डसतीं हैं खामोशियाँ,
 शब्द चुप हो
 गए, अर्थ गुम हो गए,
 और शापित हैं आकुल सीं अभिव्यक्तियाँ।
 
 तुम ये कहते हो
 कुछ भी हुआ ही नहीं,
 चलते चलते मगर ज़िन्दगी थम गई,
 जब अहं के ये पर्वत हिमालय हुए,
 बोल पथरा गए, बर्फ़ सी
 जम गई,
 पिछले रिश्तों
 की थोड़ी तपन दे सको,
 तो पिघल जाएँगीं मोम की वादियाँ।
 
 शब्द इतने
 भी बोझिल नहीं हो गए,
 कि अधर उनका बोझा उठा न सकें,
 मूक परिचय अग़र रूठ जाएँ तो क्या ?
 हम मुखर होके उनको
 मना न सकें,
 आवरण में बँधी
 जिल्द में खो के हम,
 पढ़ न पाए जो भीतर थीं बारीकियाँ ।
 
 शब्द की
 इक नदी बीच में बह रही,
 हम किनारे की मानिन्द कटते गए,
 थी विरासत में रिश्तों की पूंजी बहुत,
 पर बसीयत में लिखे
 से बँटते गए,
 हमने देखा
 है सूरज को ढ़लते हुए,
 कितनी लम्बी सीं लगतीं हैं परछाइयाँ।
 
 -आर सी शर्मा ’आरसी’
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