अनुभूति में
स्वयं दत्ता की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
अनजान
अभी तो सिर्फ दीया जला है
चाह
निवेदन
रास्ते
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चाह
तुम कवि मैं कविता हूँ
तुमने मुझे रचा है
दिया है प्राण तुमने
इस जड़ मूर्ति को।
शायद अनुप्रास ना मिले मेरी पंक्तियों में
ना ही लय तुक या छंद
शायद रस भी ना हो इनमें
पर है इनमें प्राण।
भूला भटका राही था मैं
शायद अंधा या लँगड़ा था मैं
बने तुम दृग या बैसाख़ी
पर राह मिल गई मुझे।
पर अब भी इक कसक है
तुम्हें ना हो एहसास
दिखा दो मुझको मंज़िल
ये नहीं मेरी आस।
चाहता हूँ थामे रहो उँगली मेरी
मंज़िल अब दूर है
ज़रूरत ना हो मेरी तुम्हें
पर मुझे ज़रूर है।
किए नहीं वादे हमने
ना कभी कसमें खाईं
चाहता भी नहीं मैं
वादे किए तोड़े जाएँ।
जानता हूँ मैं
हो मेरे नेत्रों के जल तुम
नहीं चाहता मैं रुदन करूँ
कहीं बह ना जाओ तुम।
धरे रहूँ तुम्हें पल्कों में
धरे रहूँ तुम्हें आखों में
धरे रहूँ तुम्हें अश्रु कण में
धरे रहूँ तुम्हें कण कण में
९ मई २००४ |