अनुभूति में
स्वयं दत्ता की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
अनजान
अभी तो सिर्फ दीया जला है
चाह
निवेदन
रास्ते
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अनजान
मैं चल पड़ा
अनदेखी मंज़िल की ओर
ना सुनी आवाज़ की ओर
ना जाने कौन सी भोर
टूट चुकी हरिधाम की डोर
उत्तेजित सा
निकल पड़ा
अलिखित उस ख़त की तरह
अपठित कलाम की तरह
अनचाहा हिज्र ना चाहा विरह
अति विकृत चेहरे की तरह
निरुद्देश्य सा
मैं चल पड़ा।
अनाम अपमान हो जैसे
अपेक्षित तिरस्कार जैसे
असीमित पारावार हो जैसे
संकुचित लघुव्रत्त जैसे
विद्युत सा
मैं चल पड़ा।
मुस्कान होंठों पर जड़ी
आँसू द्वार पर खड़ी
प्रश्नचिन्ह डरी डरी
पूर्ण विराम जाने कहा अड़ी
अशिक्षित सा
मैं चल पड़ा।
चला हुआ रूका हुआ
पूर्ण ज्वलित धुआँ-धुआँ
अब छुआ तब छुआ
गुबार सना गुमराह हुआ
फरार सा
मैं चल पड़ा
९ मई २००४ |