अनुभूति में सारिका कल्याण
की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
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तितली अंगीठी जुगनू
तुम आना
निराधार
मीठी चवन्नी
सपने और यथार्थ
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तितली–अंगीठी–जुगनू
उनसे कहूँ
कैसे कहूँ मैं
मैं इन्ही शब्दोंं के साथ,
सो रहा था डोल रहा था
पर शब्द उसके,
पीले दुपट्टे में,
गुलाबी फूलों से जड़ गए थे
इन उलझे शब्दों में
कई मौसमों ने करवट ली
वो हर डाली पर
फ़ूल बन कर मुस्कुरा रही थी
सारा जग महक रहा था
वो मुझको महका रही थी
शब्द उसके इर्द–गिर्द उड़ रहे थे
"शब्द तितली बन गए थे"
उनसे कहूँ कैसे कहूँ मैं!
उनकी हल्की सी कंपकपी से
मेरे शब्द ठिठुर गए थे
सब शब्द जम गए थे
और बर्फ़ से पड़े थे
मेरे साथ बैठे सारे
मुझको गरमा रहे थे
"शब्द अंगीठी बन गए थे"
मेरे उन दिनों की
सुबह, दोपहर और शाम
सब शब्दों की मर्ज़ी पर चल रही थी
पर शब्द थे कि निकल नहीं रहे थे
भुट्टे के तरह सारे दांतों में फंस गए थे
उनसे कहूँ कैसे कहूँ मैं!
काली सी रात फैली
तारे भी लापता थे
उतर के मानो सारे
मेरे आंगन मे आ गिरे थे
वो टिमटिमा रहे थे
"शब्द जुगनू बन गए थे"
९ जनवरी २००५
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