अनुभूति में राजेश
श्रीवास्तव की
रचनाएँ—
छंदमुक्त में—
कविता बनाने की सनक
जीवन
हास्य व्यंग्य में—
जब उसने मुझे भइया कहा
संकलन में—
होली है–
होली
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कविता बनाने की
सनक
एक दिन
मैंने अपने एक कवि मित्र से कहा
यार हमें भी कुछ बतलाओ—
और कविता बनाने के गुर सिखलाओ।
मित्र ने पूछा
कैसी कविता बनाओगे —
प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, या छायावादी?
मैंने कहा अब हो गयी बरबादी
मैं यहाँ आया था
कविता बनाने के गुर सीखने
लगता है इन वादियों में ही भटकता रह जाऊँगा
कविता क्या खाक बनाऊँगा
मैं ठहरा विज्ञान का एक छात्र
मैं क्या जानूँ इन वादियों की बात
मैंने कहा
ये कोइ जरूरी तो नहीं
कि हर कविता
किसी न किसी वादी में हो
और फिर ऐसा थोड़े ही है
कि कविता वादी मे न हो तो कवि की शादी ही न हो
मैं तो बिना वादी के ही कविता बनाऊँगा
और उसमें भौतिकी रसायन गणित तो क्या
खाना पीना सब घुसाऊँगा
चाहे तो नमूना देख लीजिए —
जीवन
इतना जटिल क्यों है जलेबी की तरह
इसे कितना सरस और सरल होना चाहिए था
रसगुल्ले की तरह
ऊपर से तो कुछ ठीक
किन्तु भीतर न जाने कितने सुख दुःख भरे पडे हैं
समोसे की तरह
जहाँ दुःख प्रचुर मात्रा में हैं
दूध में मिले पानी की तरह
सुख भी हैं किन्तु चटनी की तरह
कहते हैं इस जीवन रूपी समुद्र में
सीप घोंघे हीरे मोती सभी पडे हैं
गोलगप्पे की तरह
तो हमें हीरे मोती चुनकर
सीप घोंघे फेंक देने चाहिए
मुझ जैसे कविता लिखने सुनाने वाले कवि की तरह
१ सितंबर २००२ |