काव्य की परिभाषा से
अपरिचित्त रहा
काव्य की परिभाषा से अपरिचित्त रहा, छंद भी मुझ पर
मेरे हँसते रहे
संज्ञा-सर्वनाम में भेद था पता नहीं, पर गीत अधरों पर मेरे सजते रहे
लोग कितनी उठाते रहे मुझपर उँगलियाँ
पर कहो मैंने किसी की कहाँ सुनी
गाता रहा अपने ही लिखे गीत नए
सुनाता रहा बाँसुरी की अपनी धुनि
जिनको व्यर्थ मान कर ठुकराता रहा
वो पत्थर, हर राह पर दिशा दिखलाते रहे
काव्य की परिभाषा से अपरिचित्त रहा, छंद भी मुझ पर
मेरे हँसते रहे
जिसको कहीं मुस्कुराकर कभी देख लिया
उसको ही दोस्त मान, कंठ से लगता रहा
कभी रूठ कर खुद से, सबको मनाता रहा
कभी स्वपन के फूल नयन पर सजाता रहा
जिनसे ना मिलने के किए थे वादे कभी
बैठे याद में उन्ही की रस्ता निहारते रहे
काव्य की परिभाषा से अपरिचित्त रहा, छंद भी मुझ पर
मेरे हँसते रहे
दूर शिखा पर जलते हुए इक दीप की
रोशनी से आँखें घंटों तापते रहे
जिनकी गागर से कुछ बूँदों की आस थी
प्यासे नयनों से दूर उन्हें तकते
रहे
खुद को व्यक्त करना, असंभव था कभी
और कभी व्यथा दिल की सबको कहते फिरे
काव्य की परिभाषा से अपरिचित्त रहा, छंद भी मुझ पर
मेरे हँसते रहे
ले मन हाथ में, दूर कहीं बैठा रहा
धड़कने दिल की साँकलें बजाती रहीं
अर्थ सभी पंछी से हवा में उड़ गए
मैं बैठा शब्दों की मात्रायें गिनता रहा
अब मन स्वयं मेरे पास मेरा रहता नहीं
बात किस से कहें, किसको बताते फिरें
काव्य की परिभाषा से अपरिचित्त रहा, छंद भी मुझ पर
मेरे हँसते रहे
संज्ञा-सर्वनाम में भेद था पता नहीं, पर गीत अधरों पर मेरे सजते रहे
9
मई
2007
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