कौन-सा
मैं गीत गाऊँ
कविते! कौन-सा मैं गीत
गाऊँ,
ध्वनि जिसकी उर से ही आए
जिसके स्पंदन से मन-मंथन की,
गंध ज़रा-सी छलक भी जाए
जब-जब तेरा स्मरण करूँ मैं
तो कुछ संतोष ज़रा तो आए
छंदो में ना तनिक भी क्लांति,
या कि प्रमाद, कोई कभी पाए
कविते! कौन-सा मैं गीत गाऊँ,
ध्वनि जिसकी उर से ही आए
शब्द-स्वामिनी शब्द मुझको दें
कि गीत मेरा संवर-सा जाए
ये अध-चेतन मुख की-सी बातें
हैं अर्थहीन, कुछ अर्थ तो पाएँ
संदर्भ लगें गलियों में भटके,
अंध तमस में किरण तो आए
कविते! कौन-सा मैं गीत गाऊँ,
ध्वनि जिसकी उर से ही आए
हे शत रूपे तुम पास बैठो कि
रात तनिक कट भी तो जाए
तेरे सुरभित मुख की आभा से
रजनी में, अरुणोदय हो जाए
ऐसे चित्र चितेरो पत्रों पर,
कि रूप सभी जीवंत हो जाएँ
कविते कौन-सा मै गीत गाऊँ,
ध्वनि जिसकी उर से हो आए
9
मई
2007
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