बाँधो ना मुझको
जो उठा ह्रदय की वीणा से, वह नैसर्गिक स्वर बन
जाने दो
बाँधो ना मुझको यों सरले, उड़ मुक्त गगन में जाने दो
दी त्रासदी और अबुझ प्यास
फिर पान हुआ करुणारस का
क्यों बरस पड़ीं तुम मृदु मेघों-सी
यह भी कारण असमंजस का
छलक रहा जो सजल नयन में
यह मोती बन ढल जाने दो
बाँधो ना मुझको यों सरले, उड़ मुक्त गगन में जाने दो
झूठे अनुबंधों में रह जाए
तो
मन सुख कब है आता
शब्दों के उच्चारण से कब
गूँज प्रेम है ज़्यादा पाता
थीं तुम सपनों के संचय में
अब थाह नहीं तो जाने दो
बाँधो ना मुझको यों सरले, उड़ मुक्त गगन में जाने दो
तेरे ही बस सुख की वर्षा से
बस धन्य हुआ हूँ आज प्रिये
पर तेरे इन त्राणो का बंधन
ना मुझको है स्वीकार प्रिये
सूखी-सी इस डाली को तुम
फ़िर कुछ-कुछ हिल जाने दो
बाँधो ना मुझको यों सरले, उड़ मुक्त गगन में जाने दो
चला क्षितिज के पार स्वप्न जब
हाथ लिए आशा की गठरी
सूखे अधरों पर गिरा रहीं क्यों
सुमुखी! भरी लोचन की गगरी
बस हृदय की तप्त अग्नि से
अब सब मरुथल हो जाने दो
जो उठा ह्रदय की वीणा से, वह नैसर्गिक स्वर बन जाने दो
बाँधो ना मुझको यों सरले, उड़ मुक्त गगन में जाने दो
9
मई
2007
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