चाँद और उपमानओ चाँद,
तुम्हें जाने कितने सालों महीनों से,
देख रहा हूँ,
ऐसे ही आते हो,
आवारा से,
आ कर बैठ जाते हो,
तारों का जमघट लिए,
मन में रखते हो एक लिप्सा,
कि,
कवि मुझे सराहेंगे,
मुझे उपमान बना लेंगे
जाओ मैं तुम्हें नहीं मानता
जब भी तुम्हें,
इन तारों के साथ,
जुआरी-सा बैठा देखता हूँ,
तो मुझे याद आता है,
पी. डब्ल्यू. डी. ऑफिस का एक क्लर्क,
वो भी तुम्हारी तरह,
पहली को पूरा दिखता है,
और महीना खतम होते होते,
उसका भी पेट और पीठ,
मिल जाते हैं
जैसे तुम,
पखवाड़ों मे रूप बदलते हो,
वो महीनों में..
और एक पहली से दूसरी पहली,
उदय अस्त होता रहता है
नाराज़ ना होना चाँद
तुम अब भी उपमान हो,
अब भी साम्य रखते हो,
एक आम हिंदुस्तानी से।