अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में अंजल प्रकाश की रचनाएँ-

छंदमुक्त में-
अब मुझे नींद
आँखों का ओस
तेरी आँखें क्यों बोलती हैं
ये कैसा शहर है
 

 

अब मुझे नींद

अब मुझे नींद नहीं आती है
आँखों आँखों में रात गुजर जाती है
अब मुझे नींद नहीं आती है …

दोस्तों ने दरबार लगाया
और हमारी पेशी हुई …
इलज़ाम बहुत सारे थे
आधी रात की तरह काले थे
दलील की इजाज़त नहीं थी
फैसले पर मोहर पङनी थी …

मैं रोया– गिड़गिड़ाया
कहा एक बात तो सुन लो
फैसला सुनाने से पहले
बात की तह तो समझ लो
यह बात पत्थर पर पानी की तरह फिसल गई
मेरी एक न सुनी गई…
सर पे इलज़ाम रख कर रात चुपके से निकल गई
फिर भीगी आँखों ने सारी रात गुजारी
पानी के वेग ने नींद के मेड़ को तोड़ा
और आँखों को झपकने न दिया
सुबह की पहली किरण भी दिल को न लुभा पाई
रात के मारे को यह बात समझ में न आई

दिल पे उस इलज़ाम को रख कर
मैं जब भी सोने की कोशिश करता हूँ
एक तीर सा सीने में चुभता है
और आँखों का वेग न थमता है
रात लम्बी होती हुई सौ कोस दूर चली जाती है
अब मुझे नींद नहीं आती है …
अब मुझे नींद नहीं आती है …

सब कहतें हैं तुमको बदलना होगा
जो तुम ना हो, वो बनना होगा
वर्ना जी नहीं पाओगे
पाँवदान की तरह इस्तेमाल किए जाओगे
मैंने बहुत चाहा पर बदल ना पाया
जो मैं न हूं …वो बन न पाया
यही बातें दिल पे उतर जातीं हैं
दिन तो गुजर जाता है … रात गुजर ना पाती है
अब मुझे नींद नहीं आती है …
अब मुझे नींद नहीं आती है …

अब मन करता है फिर से
एक नन्हें बच्चे का रुप ले लूँ
जहाँ इन्सानी रिश्तों की समझ हो …ऐसे संसार में जन्मूं
अगर ऐसा जहाँ ना मिले तो
अम्माँ की गोद में छुप जाऊँ
रात की बात बता कर अम्माँ का ही प्यार पाऊँ
माँ बच्चों में कहाँ भेद करती है
उनके सारे इलज़ाम अपने सर ले लेती है

अब तो …
अम्माँ की बहुत याद आती है
और … मुझे नींद नहीं आती है …
मुझे नींद नहीं आती है …

अब मुझे नींद
अब मुझे नींद नहीं आती है
आँखों आँखों में रात गुजर जाती है
अब मुझे नींद नहीं आती है …

दोस्तों ने दरबार लगाया
और हमारी पेशी हुई …
इलज़ाम बहुत सारे थे
आधी रात की तरह काले थे
दलील की इजाज़त नहीं थी
फैसले पर मोहर पङनी थी …

मैं रोया– गिड़गिड़ाया
कहा एक बात तो सुन लो
फैसला सुनाने से पहले
बात की तह तो समझ लो
यह बात पत्थर पर पानी की तरह फिसल गई
मेरी एक न सुनी गई…
सर पे इलज़ाम रख कर रात चुपके से निकल गई
फिर भीगी आँखों ने सारी रात गुजारी
पानी के वेग ने नींद के मेड़ को तोड़ा
और आँखों को झपकने न दिया
सुबह की पहली किरण भी दिल को न लुभा पाई
रात के मारे को यह बात समझ में न आई

दिल पे उस इलज़ाम को रख कर
मैं जब भी सोने की कोशिश करता हूँ
एक तीर सा सीने में चुभता है
और आँखों का वेग न थमता है
रात लम्बी होती हुई सौ कोस दूर चली जाती है
अब मुझे नींद नहीं आती है …
अब मुझे नींद नहीं आती है …

सब कहतें हैं तुमको बदलना होगा
जो तुम ना हो, वो बनना होगा
वर्ना जी नहीं पाओगे
पाँवदान की तरह इस्तेमाल किए जाओगे
मैंने बहुत चाहा पर बदल ना पाया
जो मैं न हूं …वो बन न पाया
यही बातें दिल पे उतर जातीं हैं
दिन तो गुजर जाता है … रात गुजर ना पाती है
अब मुझे नींद नहीं आती है …
अब मुझे नींद नहीं आती है …

अब मन करता है फिर से
एक नन्हें बच्चे का रुप ले लूँ
जहाँ इन्सानी रिश्तों की समझ हो …ऐसे संसार में जन्मूँ
अगर ऐसा जहाँ ना मिले तो
अम्माँ की गोद में छुप जाऊँ
रात की बात बता कर अम्माँ का ही प्यार पाऊँ
माँ बच्चों में कहाँ भेद करती है
उनके सारे इलज़ाम अपने सर ले लेती है

अब तो …
अम्माँ की बहुत याद आती है
और … मुझे नींद नहीं आती है …
मुझे नींद नहीं आती है …

१६ अक्तूबर २००४

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter