पाँच
मुक्तक (३)
कैसे समझाऊँ
दर्द ही था ग़लत, आह तो
ठीक थी,
मौन ही था गलत, चाह तो ठीक थी,
हो अनाड़ी, ये कैसे बताऊँ तुम्हें,
दौड़ ही थी ग़लत, राह तो ठीक थी।
उपेक्षा का क्षण
क्या लिखा है न जाने मेरे माथ पर,
रेख जंजाल सा है मेरे हाथ पर,
गौर से मैंने देखा तो ऐसा लगा
कोई बुढ़िया पड़ी जैसे फुटपाथ पर।
उल्लास के क्षण
हस्त-रेखाएँ ज्यों छूटती
फुलझड़ी,
कुछ हैं सीधी सरल, कुछ हैं आड़ी पड़ी,
इन लकीरों का मतलब नहीं जानती,
पर लगे जैसे कुछ मृग भरें चौकड़ी।
क्यों हैं
तेरी करनी बनावटी क्यों हैं?
तेरी कथनी दिखावटी क्यों हैं?
कथनी करनी में शुद्धता की जगह,
मामला ये मिलावटी क्यों है?
क्या करेगा तू
तेरी नफ़रत धरा से भारी
है,
ये अहंकार गगनचारी है,
तुझसे सबका इलाज क्या होगा,
तू तो खुद एक महामारी है।
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