पाँच
मुक्तक (१)
चुभन
बस छलावे दिखाता रहा रात दिन,
तूने वादे किए जो, उन्हें आके गिन,
मैंने यादों में तुझको लगाया है यों,
पत्तियों में लगाई हो ज्यों आलपिन।
तब और अब
पहले हर रंग मेरा सुहाया बड़ा,
लाड़ अपने खतों में लड़ाया बड़ा,
आ गई हूँ तो मुझसे नज़र फेर लीं,
क्या समझता है खुद को तू, आया बड़ा।
बताती हूँ
उड़ सकूँ चाहे जहाँ,
ऊँचाइयाँ दो वो मुझे,
मुक्त मृग की चाल दो, अंतस में सिहरन हो मुझे,
पूछते हो चाहिए क्या, फिर बताती हूँ चलो,
पत्तियों से छानकर सूरज की किरणें दो मुझे।
प्यार क्या है
खट्टी इमली है या करेला है,
एक मेला है या झमेला है,
प्यार क्या है वो बताए कैसे,
जिसने ये खेल नहीं खेला है।
मेहनत का नगीना
झिलमिलाता है झीना झीना है,
श्रम का, मेहनत का वो नगीना है,
जिसको सूरज तलक सुखा न सके,
वो तो मज़दूर का पसीना है।
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