पाँच
मुक्तक (२)
अपना जनतंत्र
या तो बाबा का फूँका हुआ
मंत्र है,
कोई जादू है या फिर कोई तंत्र है,
कितने षड्यंत्र आफत झमेले हैं पर,
चल रहा फिर भी अपना ये जनतंत्र है।
लोकतंत्र की खातिर
प्यास के वास्ते सुराही है,
जुर्म के वास्ते सिपाही है,
टूटते लोकतंत्र की खातिर,
इक अदद पैन और सियाही है।
कहेगी दुनिया
नफ़रतें इस तरह की पालोगे,
क्रोध को इस तरह निकालोगे,
आत्महंता ही कहेगी दुनिया,
गर न खुद को अभी सँभालोगे।
क्यों
साथ हैं, साजो सामान सब सज गया,
पर लगे, मन तेरा, तन तेरा तज गया,
दिन हो या रात हो, बस तेरा साथ हो,
क्यों घड़ी देखता है कि क्या बज गया?
एक सलाह
मैंने बतलाया था, तुमने माना नहीं,
अब सुनूँगी मैं कोई बहाना नहीं,
कुछ उठाने की खातिर झुके, ठीक है,
पर कलम अपनी नीचे गिराना नहीं।
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