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शब्द का सच
गीत को स्वेटर सरीखा
बुन रहा हूँ
समय की पदचाप
जैसे सुन रहा हूँ
साँस में सम्वेदना के
स्वर सजे हैं
रात गहरी है
न जाने क्या बजे हैं
अक्षरों के फूल,
क्रमशः चुन रहा हूँ
पंक्तियों में ज्यों
पिरोई है प्रतीक्षा
आँच मन की
दे रही है अग्नि–दीक्षा
पर्व का एकान्त
पल–पल गुन रहा हूँ
सोच के आकाश से
बादल हटाकर
भाव से अतिरंजना के
पल घटाकर
शब्द का सच
रूई जैसा धुन रहा हूँ
९ जुलाई २००१ |