गीत फिर उठती हुई आवाज है
गीत खुशबू की मशालें हैं
गन्ध की चिनगारियाँ बोती हुई
किस तरह फिर भला जागेगी नहीं
राह में सम्वेदना सोती हुई
गीत तो उजली कसौटी है
कसो इस पर स्वयं का पहचान लो
चलो अपनी रीढ़ से पहले जुड़ो
फिर भले कोई नया प्रतिमान लो
गीत दस्तक है किवाड़े की
चुप्पियों में चेतना बोती हुई
गीत पूरब की दिशा भी है
रोज सूर्योदय सँजोए आस का
रात कितनी भी अँधेरी हो भले
कुछ न बिगड़ेगा सघन विश्वास का
गीत बदली है घनी आषाढ़ की
धूल मन की नेरू से धोती हुई
गीत रोली आस्था की है
रोशनी को पूजते घर–द्वार सी
एक छवि है, टेरती है जो
प्रार्थना सी, मंत्र सी, त्योहार सी
गीत फिर उठती हुई आवाज़ है
बोझ कल का बिन थके ढोती हुई
गीत है पावन ऋचा
अनुभूति की
जो लिखी है प्रकृति के भी भाल पर
गीत संस्स्कृति है समन्वय की
एक डाली झुकी जैसे ताल पर
गीत फिर आती हुई तारीख है
क्रूर यादें भीड़ में खोती हुई
९ जुलाई २००१ |