कुछ तो कहो
लौह होता तिमिर
भुरभुरी चाँदनी
गीत चुप मत रहो
आज कुछ तो कहो!
है कुहासा गगन तक
उमड़ता हुआ
गुनगुनी धूप
गूँगी हुई-सी खड़ी
कद सिमटता हुआ
रोज़ घटता हुआ
और परछाइयों की
उमर हर बड़ी
फड़फड़ाकर हवा
गुनगुनाकर हवा
साज में कुछ बहो
आज चुप मत रहो!
इस चकाचौंध में
झिलमिलाता समय
एक अंधी गुफ़ा के
खड़ा द्वार पर
नीम-होशी लिए
गुनगुनाता हुआ
त्याग 'इस पार' को
मीत 'उस पार' पर
मौन क्यों हो डगर
रोक दो यह सफ़र
यों न सब कुछ सहो
आज कुछ तो कहो!
हिम-शिखर की गुफ़ा में
सिमटता हुआ
सूर्य तो वह नहीं
वह किरण तो नहीं
स्वस्ति की पोर छू
खोल जिसने नयन
नित्य नव जागरण की
कथाएँ कहीं
ओढ़कर शाप को
छोड़कर ताप को
शीत में मत दहो
आज कुछ तो कहो!
२ नवंबर २००९ |