फिर उठेगा शोर एक दिन
फिर उठेगा शोर एक दिन
दो घड़ी की रात है यह
दो घड़ी का है अँधेरा
एक चिड़िया फिर क्षितिज में
खींच लायेगी सवेरा
मानता हूँ आज की
ये रात मुश्किल है मगर-
लौट आएगा वो कल का
बीत बैठा दौर एक दिन।
कब तलक घुटता रहेगा
हक-सरे बाजार में
एक दिन हलचल मिलेगी
देखना अखबार में
लोग उमड़ेंगे सड़क पर
हाथ में ले तख़्तियाँ
बाज़ू-ए-क़ातिल नपेगा
फिर तुम्हारा ज़ोर एक दिन।
दग्ध आवेशों में तन-मन
जल रहा तो क्या करूँ?
एक सपना फिर भी दिल में
पल रहा तो क्या करूँ?
काँपते ये हाथ लिखने में
कहानी आज की, पर
गुनगुनाते होंठ से-
गाएगा कोई और एक दिन।
१ नवंबर २०१७
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