|
शालिगराम
कितना चन्दन, कितना पानी सोख गये
फिर भी, रंग न बदला शालिगराम का।
भोग भोगते, जमे हुए सिंहासन पर
ये पत्थर हैं, पत्थर कभी नहीं
हिलते।
धूप-दीप-नैवेद्य ग्रहण करने आते
अँधियारे में लेकिन,
देव नहीं मिलते।
रोटी की बैसाखी पर चलते-चलते
रस्ता नाप रहे हम चारों धाम का।
हर देवालय में, ये ही काबिज मिलते
घाट-घाट पर, इनका नाम लिखा
देखा।
हवन-यज्ञ की समिधा हासिल करने में
उजड़े कितने नीड़, नहीं
कोई लेखा।
इनकी स्तुतियों में, कितने ग्रन्थ बने
कोई पन्ना, नहीं हमारे
नाम का।
स्वाती की बूँदों से, प्यास नहीं बुझनी
किसी भगीरथ को, आगे आना होगा।
बैठ किनारे, लहरों का लेखा कैसा?
सागर में गहराई तक जाना होगा।
कोरी प्रभुता का, कब तक वन्दन होगा
बिना मथे, यह नहीं हमारे काम का।
१ अप्रैल २०१७
|