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मन जब रसखान हो गया
आँखों से छलके मोती
गीतों के छन्द हो गये।
अधरों पर हास खिल उठे
मानो स्वच्छन्द हो गये।
नींद नहीं आँखों में
कसक उठे रातों में
शिथिल गात पीत हो गये।
प्राण टँगे शाखों पर
पीर खिली पातों पर
क्रन्दन ही रीत हो गये।
सुधियों ने थपकी दे दी
भाव घन-आनन्द हो गये।
पुरवा कुछ कुछ गाती
आँचल है सरकाती
अँगना में शोर मचाती।
आती है साथ लिए
सुधियों की सँझवाती
रैना की भोर न आती।
आयेंगे प्रियतम कैसे
द्वार सभी बन्द हो गये।
झींगुर उत्पात करें
जाने क्या बात करें
रात-रात कर रहे किलोल।
एकाकी जागूँ मैं
कातर सी भागूँ मैं
काँपे तन, मन जाये डोल।
रजनी-बैरन चिढ़ा रही
सुरभित मकरन्द हो गये।
सब कुछ तो छोड़ दिया
रस का घट फोड़ दिया
फिर कैसी दहकती अगन।
सबसे है मुँह मोड़ा
तुझ सँग नाता जोड़ा
तेरे सँग लग गई लगन।
नेह बिना वर्तिका जली
उजियारे मन्द हो गये।
तन आकुल, मन व्याकुल
क्या राधा, क्या मीरा
सबको है साथ जी लिया।
पारस की चाह जिसे
क्या सोना, क्या हीरा
‘विकल’तेरा नाम ही लिया।
मन जब रसखान हो गया
चहुँदिशि आनन्द हो गये
१ अप्रैल २०१७
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