अनुभूति में
रामदरश मिश्र
की रचनाएँ-
लंबी कविता में-
बहुत कुछ
बचा हुआ है
मुक्तक में-
बुढ़ापा- ग्यारह मुक्तक
कुछ मुक्तक
गीतों में-
उम्र की दूर दिशा से
कवि
कैसे लिखता है
कोई नहीं, कोई नहीं
चार बज गए
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बहुत कुछ बचा
हुआ है
लौट आया हूँ घर
कितना अच्छा लग रहा है कि
इसकी खपरैल की जगह चमक रही है पक्की छत
बरसात में हमारे आँसुओं की तरह ही
चूती थी खपरैल
साँप लटके होते थे यहाँ वहाँ
कच्ची दीवारें पक्की दीवारों में बदल गई हैं
आज भी कानों में बज रही है
बारिश में टूटती कच्ची दीवारों की अरराहट
घर एकाएक एकदम नंगा हो उठता था
और पिता की सुन्न आँखों में डूब जाता था
बिजली की जगमगाहट में नहा रहे हैं कमरे
कितनी कोफ्त होती थी
जब पाठ याद करने के लिए
जाड़े की सुबह-सुबह ढेबरी जलानी पड़ती थी
तेल नहीं होता था तो मन मारकर सो जाते थे
और स्कूल मे मास्टर की मार खाते थे
अब हाथ बढ़ाकर बटन दबाया और
रोशनी का फव्वारा फूट पड़ा
टेलिविजन से समाचार आ रहा था
मैं रोमांचित हो उठा
याद आ गया पागल नदियों से घिरा वह गाँव
जहाँ समाचारों की एक किरण भी नहीं आती थी
आती थीं केवल अफवाहें
अब तो घर आँगन
विश्व की बोलती छवियों से जगमगा रहा है
वाह क्या बात है किरणों के झुंड की तरह
चली आ रही हैं बालिकाएँ स्कूल से
चेतना के नए उन्मेष-सी
हँसती खिलखिलाती हुई
ट्रैक्टर की आवाज आई
बताया गया कि यह अपना ही है
खेत से आ रहा है
याद आए अपने दो मरियल बैल
जिनके लिए
जाड़ा हो या बरसात, अकाल हो या सुकाल
सुबह-सुबह उठना
और सानी-पानी का प्रबंध करना ही पड़ता था
खेत हों या खलिहान
दोनों बैठ जाते थे तो
मार खा-खाकर भी उठने का नाम नहीं लेते थे
उनके साथ न जाने कितनी खट्टी-मीठी यादें जुड़ी हैं
फिर कितनी मारा-मारी होती थी मजूरों को सहेजने में
अब ट्रैक्टर है
जोतता है, बोता है, काटता है, (((दांता))) है, ढोता है(शायद
'लादता'आए)
लगा कि संपन्नता की उष्मा से महक रहा है घर
याद आ गया अपने रसोईघर का चूल्हा
जो प्रायः उदास पड़ा रहता था
जलता भी था तो खुलकर नहीं
मैं कितना प्रसन्न था अपना बदला हुआ घर देखकर
लेकिन अपने इस बावले मन का क्या करूँ
रह-रहकर भटक जाता है दूर कहीं, मेरा साथ छोड़कर
जब मैं घर में अकेला हुआ
तो यह सोचने लगा
यहीं कहीं रस्सियों पर टंगी होती थीं मक्के की बालियाँ
शरद के रंग और गंध में डूबी हुई
कितना सोंधा संगीत होता था उनमें
जब वे भुनती थीं
स्कूल से लौटे हम भूखे बच्चों के लिए
यहीं कहीं एक चक्की थी
जिसके जुए पर
माँ और भाभी के हाथों के गहरे निशान थे
जो अपनी करुण घरघराहट के साथ
झरती थी जीवन की रागिनी
जिसकी धुन पर माँ और भाभी के कंठों से
दर्द भरा गीत थम-थमकर फूटता था
और अवकाश में भटकने लगता था
यहीं कहीं एक आला था
जिसमें रखा रहता था माँ का सुहाग श्रृंगार-
चूड़ियाँ, सिंदूर की डिबिया, कंघी और शीशा
पास में ही कहीं एक टूटा-सा बक्सा था
जिसमें माँ कुछ पैसे छिपाकर रखती थी
प्यार की तरह
और उनकी आँच से
रह-रहकर हमारे आँसू सोखती रहती थी
यहाँ कुछ खूँटियाँ थीं
जिन पर टंगे होते थे हमारे मिथक
जिनसे होते हुए हम ऐसे लोक में पहुँच जाते थे
जहाँ अगरबत्ती की खुशबू भरी होती थी
अब तो दीवारों पर कीलें हैं
जिनमे लटके हुए हैं
सिने तारिकाओं के भड़कीले चित्रों वाले कलैंडर
जो आँखों को न जाने कहाँ से कहाँ ले जाते हैं
टी.वी. से भड़कीले स्वर में
देहवादी सिने-संगीत गूँजा तो मैं चौंक उठा
फिर बवला मन धीरे-धीरे पहुँच गया वहीं
यहीं कहीं बैठी-बैठी गीत गाती थी माँ
पूजा के, मौसमों के, पर्वों के
हम उनमें बहते चले जाते थे
अपने से पार न जाने कहाँ कहाँ तक
यहीं कहीं वह कहानियाँ सुनाती थी
जिनमें बहते-बहते हम पहुँच जाते थे एक आर्द्र लोक में
जहाँ पशु-पक्षी, पेड़-पौधे-मनुष्य, राजा-रंक
सभी एक ही परिवार के होते थे-दर्द में नहाए हुए-से
यहीं कहीं रात के पिछले पहर में
पिता के दर्दीले कंठ से फूटता था लोक रस से भीगा गीत
वह गली-गली भटकता हुआ पूरे गाँव को भिगो देता था
यहीं कहीं रुनझुन-रुनझुन गति से चलती हुई भाभी अपने
नन्हे देवर को छेड़ती थीं
और उनकी हँसी आँगन में बहने लगती थी
स्वच्छ हवा की तरह
यहीं कहीं एक कमरा था
जिसमें जाड़ों में पुवाल बिछा होता था
यहीं गुदड़ी के नीचे दुबकी मेरी आँखों में
कितने महकते हुए सपने जन्में थे
और अंकित हो गए थे दीवारों पर, छत पर, यहाँ वहाँ
बावला मन उदास हो गया
मैंने देखा-
एक ताख में
रामचरित मानस की पोथी-अभी भी रखी हुई थी
मैं खुश होकर चिल्लाया-
ओ बावले मन
उदास मत हो
देख
यह पोथी बची है
तो अभी बहुत कुछ बचा हुआ है!
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तुमने कबीर को देखा है?
दर्द की एक नदी थी
जिसका जल रोते-रोते आग बन रहा था
फौलाद का एक दहकता हुआ पर्वत था
जिसके भीतर से ठंडे जल के झरने फूट रहे थे
और सींचते चले जा रहे थे
जलते रेगिस्तानों को, झुलसे हुए वीरानों को
एक फकीर था
जो कीचड़ में धँसकर रोता हुआ खोज रहा था
उसमें खोए हुए हीरे को
एक वियोगिनी थी अखंड पीड़ा-सी
जिसकी आँखें पथरा गई थीं
प्रियतम की राह देखते-देखते
एक जन-शिल्पी था
जो अपनी धमनियों के धागों से
लोगों के लिए चादर बुन रहा था
एक विराट पागल था
जो अपना घर जलाकर
दूसरों के घरों में उजाला कर रहा था
एक अपढ़ देहाती प्यार था
उन्मुक्त वासंती पवन की तरह
बहता और बहाता हुआ
जिसके आगे
ज्ञान से गर्वित ऊँचे-ऊँचे पेड़ों का माथा
झुका हुआ था
और जिसके स्पर्श से
दूबें सिर उठा रही थीं मुस्कराती हुई
तुमने कबीर को देखा है?
१३ जुलाई २०१५
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