अनुभूति में
रामदरश मिश्र
की रचनाएँ—
मुक्तक में-
बुढ़ापा- ग्यारह मुक्तक
कुछ मुक्तक
गीतों में-
उम्र की दूर दिशा से
कवि
कैसे लिखता है
कोई नहीं, कोई नहीं
चार बज गए
|
|
कुछ मुक्तक
१
बीच पतझर के बसंती सृजन का
उल्लास हूँ
बोल कुछ पाता न जो उस दर्द का अहसास हूँ
भटकते फिरते हो घर से दूर मेरी खोज में
प्यार से देखो जरा मैं तो तुम्हारे पास हूँ।
२
वे कहते—‘क्यों गेरुआ नहीं’, वे कहते—‘क्यों न लाल हूँ मैं?
वे कहते—‘क्यों मैं ठंडा हूँ’, वे कहते—‘क्यों उबाल हूँ मैं?’
मैं हूँ अदीब, मुझ पर न चढ़ा कोई भी रंग सियासत का
सत्य के रंग में रँगा हुआ, इनसे उनसे सवाल हूँ मै
३
फसलें उदास फागुनी बोली बयार से
‘हम देख रही हैं तुम्हें कहना बहार से’
बोली बयार—‘आई थी, आकर है रम गई
आने लगी है अब तो वो दिल्ली में कार से।’
४
जाएँगे हम यहाँ से कहाँ, जानते नहीं
कहते हैं जिसे सच उसे पहचानते नहीं
पर जी रहे हैं जिसको विविध रूप-रंग में
उस जिंदगी को सत्य हाय मानते नहीं।
५
सागर में रहे, जलते रहे फिर भी प्यास में
सुख से लदे हुए रहे सुख की तलाश में
कितना तो चैन मिल रहा है छाँह में घर की
है लग रहा कि माँ कहीं बैठी है पास में।
६
ज्वाला में जले, शीत में हिम के तले गए
हर राह में लाचार सफर की छले गए
आए थे एक जिंदगी जीने जहान में
खाकर हजार ठोकरें असमय चले गए।
७
स्कूल तक का रास्ता ही रास्ता होता नहीं है
हो गया असफल यहाँ तो शेर दिल रोता नहीं है
राह चुन लेता है कोई और जीवन की, विहँसकर
मौत के आगोश में निरुपाय हो सोता नहीं है।
८
राहें हैं बहुत दोस्त, जिंदगी ये सफर है
छूटी जो इधर एक तो दूजी तो उधर है
गर टूट गया ख्वाब एक दूसरा देखो
हर रात में पोशीदा कहीं एक सहर है।
९
कितना अच्छा होगा वह दिन जिस दिन घायल प्यार न होगा
मन का कोई हास हाट में बिकने को लाचार न होगा
गले मिलेगी हर मजहब से उठकर इनसानों की बोली
सुबह-सुबह कितने जख्मों से लदा-फदा अखबार न होगा।
१०
ख्वाबों में सही पास जरा आ मेरे बचपन
खेतों में जो गाया था, वही गा मेरे बचपन
फिर भेंट हो कि न हो यह छाया है शाम की
अपनी हँसी सुबह सी सुना जा मेरे बचपन।
२ मई २०११ |