उम्र की दूर दिशा
सेआज उम्र की दूर दिशा
से
सावन की वातास आ रही
जिन-जिन फूलों से गुज़रा
उन-उन फूलों की वास आ रही!
निकला था मैं सालों पहले
घर से गठरी लिए सफ़र की
कुछ अरूप सपने भविष्य के
कुछ गाढ़ी यादें थीं घर की
आज न जाने कहाँ-कहाँ की दूरी
मेरे पास आ रही!
बहते हुए शहर के पथ पर
आँखें सहसा अट जाती थीं
धूल-भरी आकृतियाँ कुछ
गाँव की दिखाई पड़ जाती थीं
उमड़-उमड़ अब भी अंतरतम में
बचपन की प्यास आ रही!
चलता गया, राह में आए
कितने नए-नए चौराहे
पाता गया न जाने कितना
कुछ नूतन चाहे-अनचाहे
यादों में कुछ पेड़ पिता-से,
भीगी माँ-सी घास आ रही!
साथ समय के चलते-चलते
कितना दूर निकल आया मैं
फिर भी रह-रहकर लगता
ओ गाँव, तुम्हारा ही साया मैं
मेरी इन शहरी साँसों में
उन खेतों की साँस आ रही!
१४ सितंबर २००९