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जनतंत्र
यह कैसा जनतंत्र
कि जिसमें
जनता ही रहती बेहाल
प्रजातंत्र में प्रजा निरर्थक
केवल शासन-तंत्र बचा है
उतनी उसकी पूछ यहाँ पर
जैसे नेता का चमचा है
आम आदमी के घर में तो
भीषण हाहाकार मचा है
परजा भूखी प्रजातंत्र में
नेता होते मालामाल
जो काले धन के स्वामी हैं
वे सबसे ज़्यादा सफ़ेद हैं
ऊपर चमक रहे हैं बरतन
किंतु तली में बहुत छेद हैं
जाति-धरम के भेदों में भी
पैदा करते नए भेद हैं
उतने वे रहते हैं निर्भय
जितनी होती तगड़ी ढाल
छल से, डर से या तिकड़म से
जब अपनी सरकारें आएँ
गुर्गों की नित नई जमीनें
कोठी-कारें बढ़ती जाएँ
उन पर लगी बदल दी जातीं
दंड-संहिता की धाराएँ
सज्जन डरे-डरे रहते हैं
हो जाता हर दुष्ट निहाल
१ अक्तूबर २०१६
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