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अविराम सफर
कड़ी धूप पल भर की छाया
जीवन में विश्राम कहाँ
यह अविराम सफर है इसमें
चैन कहाँ! आराम कहाँ!
झुलसाती दुपहर जैसे ही
हमको पहर लगे सारे
जो भी प्यास बुझाने आता
उसके घूँट लगे खारे
माँ की गोदी-सी सुखदायी
लोरी गाती शाम कहाँ!
जो अपने से लगे उन्होंने
किया कपट, छल-द्वेष किया
हर आशा तोड़ी दर्पण-सी
सारा श्रम निःशेष किया
दुख बरसे सावन-भादों से
सुख की भोर ललाम कहाँ!
नजरों में विश्वास न होता
वाणी में उल्लास नहीं
दूर-दूर तक अपनेपन का
होता है आभास नहीं
धैर्य बँधाते प्यार लुटाते
वे कान्हा बलराम कहाँ!
१ अक्तूबर २०१६
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