अनुभूति में
राजेश कुमार
श्रीवास्तव की रचनाएँ-
गीतों में-
अभिव्यक्ति की सीमाएँ
एक नदी है मेरे भीतर
दर्द देवयानी के
बिखरे छंद जिंदगी के
मन के
भीतर युद्ध
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बिखरे छंद जिंदगी के
किसी अतुकांत कविता की तरह
बिखर गए हैं छंद-तुम्हारी मेरी जिंदगी के।
कई पंक्तियों में
मिलकर भी हम प्रश्नचिह्न हो जाते हैं
हम दो बंजारे शब्द रुके भी तो विराम खो जाते हैं
कितनी विसंगतियों के हाशिए
छोड़ बैठे हम मासूम अध्याय में सादगी के।
कहीं भी किसी भी
मोड़ पर जिंदगी में सम नहीं होते
समझौते ही टकराते हैं केवल हम नहीं होते
कभी स्वार्थ, कभी लालच, कभी डर
क्या-क्या न अर्थ निकाले हमने बंदगी के।
कभी लय नहीं
मिलती, कभी ताल तो कभी तुक नहीं होती
अब मिलने में जाने क्यों पहले-सी कुहुक नहीं होती
फिर भी अच्छे खासे अभिनेता हैं हम
रिश्तो-नातों की रस्मों की अदायगी के।
पंचमाक्षरों–सी
अब कोमलता नहीं, मीठी-मधुर ताल नहीं
फिर भी मलाल ये है किसी को भी जरा-सा मलाल नहीं
चंद बासी कटुताएँ अब तक
क्यों पाले बैठे हो तुम ताजमहल में ताजगी के।
११ जून २०१२
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