धान रोपते हाथ
धान रोपते हाथ
अन्न के लिए तरसते हैं,
पानी में दिन-भर
खटकर भी प्यासे रहते हैं।
मुखिया के घर रोज़ दिवाली
रातें मतवाली,
क्रूर हवेली की हाकिम भी
करता रखवाली!
पर झुनिया की
लुटी देह की रपट न लिखते हैं!
जो भी शहर गया, मेड़ों के
वादे भूल गया,
सरपंचों की हमदर्दी का
कुंअना सूख गया।
घायल आँसू
पाती का पथ ताका करते हैं।
तेल बिना अब नहीं दिया भी
झुग्गी में जलता
चुकी मजूरी, पंसारी भी
बात नहीं करता।
सूदखोर मनचले
पड़ोसी ताना कसते हैं।
त्योहारों में भी साड़ी का
सपना रूठ गया,
कर्ज़े की आँधी से तन का
बिरवा सूख गया।
सबकी फसल कटी
मुनिया के फाँके चलते हैं।
१६ अप्रैल २००६
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