अनुभूति में
ओम प्रकाश तिवारी
की रचनाएँ
नई रचनाओं में-
कर्फ्यू में है ढील
कुम्हड़ा लौकी नहीं चढ़ रहे
गाली देना है अपना अधिकार
चाहे जितने चैनल बदलो
न्याय चाहिये
गीतों में-
अब सावन ऐसे आता है
अरे रे रे बादल
बूँद बनी अभिशाप
कुंडलियों में-
पाँच चुनावी कुंडलियाँ
अंजुमन में-
ख़यालों में
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कुम्हड़ा लौकी नहीं चढ़ रहे
कुम्हड़ा-लौकी
अब छप्पर पे
नहीं चढ़ रहे गाँव में
रोज चढ़ रहीं दारू मैया
गुटका-गाँजा-सुरती भैया
चौराहे पर चाय केतली
कभी भाँग की ता-ता थैया
प्रगति कर रही है नव पीढ़ी
बेड़ी बाँधे पाँव में
चढ़ी बाँस पे ताश की गड्डी
भूले खो-खो और कबड्डी
गाय-भैंस को देशनिकाला
दिखती है गालों की हड्डी
पढ़ना-लिखना नकल भरोसे
छेद कर रहे नाव में
खूब चढ़ रही कर्ज-उधारी
चमक रही है साहूकारी
खानापूरी में माहिर हैं
जिन्हें बैंक कहते सरकारी
फिर भी चार्वाक की दुनिया
दिखती गाँव- गिराँव में
चढ़ती जाती हैं दीवारें
अनबन की छीटें-बौछारें
हर घर में दो-चार मुकदमे
भाई ही भाई को मारें
प्रेमचंद के पंच मगन हैं
अपने-अपने दाँव में
२४ दिसंबर २०१२
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