अब सावन ऐसे आता
है अब सावन ऐसे आता है।
जिन चौपालों में होता था
ढोलक की थापों पर आल्हा,
वहीं कुकुरमुत्तों से उगते
नेता नित्य बदलते पाल्हा।
जाने किस विचार में दादुर,
गाते-गाते खो जाता है।
हरे बाँस पर पेंग मारती
इठलाती गोरी हम भूले
कभी-कभी अब किसी ठूँठ पर
दिख जाते टायर के झूले।
हाथों में मेहंदी रचना अब
रीत पुरानी कहलाता है।
अलग पड़ी बहनों की गुड़िया
बालक खेल ढूँढ़ते दूजा,
नर-नर नाग बने घर-घर में
कौन करे नागों की पूजा।
घटा देख छिप जाए मयूरी,
मोर नपुंसक हो जाता है।
१ अगस्त २००६
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