अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में ओम नीरव की रचनाएँ

गीतों में-
धुंध के उस पार
पल पल पास बनी ही रहती
पाँखुरी पाँखुरी
माटी तन है मेरा
वही कहानी

छंद में-
हनुमान लला : चार दुर्मिल छन्द

संकलन में-
नीम का पेड़- निबिया की छाँव


 

`

हनुमान लला
(हनुमान जयंती के अवसर पर- चार दुर्मिल छन्द)


तिमिरान्ध रही यह अर्ध धरा, पर सूरज तो दिन रात जला,
तम बाहर का न मिटा जिससे, वह भीतर क्या करता उजला,
असमर्थ बड़ा कमजोर बड़ा, जब सूरज दंभ भरा निकला,
करने हित दंभ विनाश तभी, रवि लील गये हनुमान लला !

उर-मंदिर दीप जला न कभी, जड़-मंदिर में नित दीप जला,
चढ दीयट दीप रहे जलते, तम-तोम न किंचित मात्र गला,
दृग लोल अलोल न लेश हुए, टिक दृष्टि न लेश सकी चपला,
बन ज्योति प्रचंड रहे जलते, तब अन्तस में हनुमान लला !

कितना छल नाथ किया हमने, मुख राम ररे तन काम कला,
यह शीश झुका पर दंभ नहीं, हमने निज को हर बार छला,
छल नीर बना उर से उछला, दृग से निकला बन धार चला,
रघुनाथ पदाम्बुज माथ धरे, जब लीन दिखे हनुमान लला !

मन में तम ही तम घोर भरा, तन दीख रहा उजला-उजला,
मति में जड़ तर्क-वितर्क भरा, उर भाव बिना उथला-उथला,
नद-जीवन का कुछ साध्य नहीं, जल-दंभ फिरे मचला-मचला,
सविता तुम, साधन-साध्य तुम्हीं अवलंब तुम्हीं हनुमान लला !

२९ अप्रैल २०१३

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter