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अनुभूति में मरुधर मृदुल की रचनाएँ-

गीतों में-
जब यह होगा, गीत लिखूँगा।
डर
धरती की बाँहें

मन में जाने
हम

  मन में जाने

मन में जाने क्या-क्या प्रश्न उभरते हैं ।
रात समन्दर, दिन पहाड़ से लगते हैं।

प्यार हो गया एक छलावा।
अपनापन हो गया अलावा।
आज प्यार के सारे किस्से
छुपी राड़ से लगते हैं।

औरों तक के खुल जाते थे
एक हल्की सी दस्तक से।
अपनों के अब खुले हुए भी
बंद किवाड से लगते हैं।

जो लगते ऐसे-वैसे हैं
सच में तो, हैं जैसे हैं।
कुछ तो अच्छे लगते हैं
केवल आड़ से लगते हैं।

जो दूर-दूर तक फैले हैं
लेकिन बहुत विषैले हैं।
थोडी-सी भी छाँव नहीं है
पेड ताड़ के लगते हैं।

जो कल थे अपने आज नहीं।
कुछ भी कहीं लिहाज नहीं।
बाड़ के रखवाले ही अब तो
दुश्मन बाड़ के लगते हैं।

जो पर प्यार अचीता है
वो ही आखर जीता है।
हम तुम तो अनुबंध प्यार के
अब प्रगाढ़ते लगते हैं।

२४ मार्च २०१४

 

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