अनुभूति में
मरुधर
मृदुल की रचनाएँ-
गीतों में-
जब यह होगा, गीत लिखूँगा।
डर
धरती की बाँहें
मन में जाने
हम |
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डर
कभी इधर है, कभी उधर है
हर दरवाजे डर ही डर है।
इसको हमने ही सिरजा है
ये, लेकिन चलता-पुर्जा है
यह भस्मासुर हर सर पर है।
यह रहता इस-उस की जद में
यह रहता मन्दिर-मस्जद में
सन्देहों में इसका घर है।
अदृश्यों को ये गढ़ता है
जी चाहे जैसे पढ़ता है
लुका-छिपी की यह चर-भर है।
यह रहता है अफवाहों में
यह रहता बढ़ती चाहों में
छीना-झपटी का तेवर है।
सन्दूकों में यह पलता है
बन्दूकों में यह चलता है
जब-तब आ जाता अक्सर है।
यह सत्ता से, सत्ता इस से
यह चलता जाने किस-किस से
नहीं लौटता यह आकर है।
वक्त पड़े फैलाया जाता
डर से डर टकराया जाता
यों मिल जाता सब जी भर है।
जहाँ-तहाँ यह दिख जाता है
जाने क्या-क्या लिख जाता है
कहने को ये दो आखर है।
और भले ही क्षण-भंगुर है
लेकिन यह तो अजर-अमर है
सब को इसकी लगी उमर है।
यह रहता है छुपा अहम् में
यह रहता है हम में, तुम में
बाहर कम, ज्यादा भीतर है।
यह रहता है सन्नाहट में
दूरी से आती आहट में
इसको लगती नहीं नजर है।
हाट-बजारों में बिकता है
जो चाहे जैसे लिखता है
रोज बनाता बड़ी खबर है।
यह मुस्काता है बुद्धों को
यह ले आता है युद्धों को
इसके साधे समर, समर है।
वैसे जो चाहे करता है
शब्दों से, लेकिन डरता है
शब्द अनश्वर है, शब्द अमर है।
२४ मार्च २०१४ |