अनुभूति में
मरुधर
मृदुल की रचनाएँ-
गीतों में-
जब यह होगा, गीत लिखूँगा।
डर
धरती की बाँहें
मन में जाने
हम |
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हम
जिसकी सारी कटी लकीरें
ऐसी एक हथेली हम।
छत टूटी, आँगन टूटा है
तिड़क गई दीवार सभी।
नींव-सींव से सब टूटा है
टूट गये आधार सभी।
जिसका बाहर ही बाहर हो
ऐसी एक हवेली हम।
जिसकी सारी कटी लकीरें
ऐसी एक हथेली हम।
कहने को सब कुछ-ना-कुछ है
रहने को सब कुछ सब कुछ है।
बाहर कुछ है भीतर कुछ है
क्या जाने हम क्या सचमुच हैं?
जिसको कोई बूझ न पाये
ऐसी एक पहेली हम।
जिसकी सारी कटी लकीरें
ऐसी एक हथेली हम।
खुद पांचाली भरी सभा में
तन नापे और चीर उतारे।
दहलीजों के सन्नाटों में
चीखों के दहके अंगारे।
धन की आग लपेटे तन पर
ऐसी नार नवेली हम।
जिसकी सारी कटी लकीरें
ऐसी एक हथेली हम।
खुली आँख से जो दिखते हैं
और किसी ने साधे सपने।
और किसी के गये रचाये
वे चेहरे ही चेहरे अपने।
जो चाहे जैसे रच जायें
बस बालू की भेली हम।
जिसकी सारी कटी लकीरें
ऐसी एक हथेली हम।
खुले खजाने सेंध लग रही
जो चाहे जैसे आ जाये।
संदेहों के बढ़ते घेरे
अपने लगने लगे पराये।
जिसको अपने लगे अजनबी
ऐसी एक सहेली हम।
जिसकी सारी कटी लकीरें
ऐसी एक हथेली हम।
खुद ही चौसर खुद ही चौपड़
खुद ही खुद के पासे हम।
खुद ही खुद की जीत बताते
खुद पर फहरा कर परचम।
जैसे कोई निपट अकेला
खेले आँख मिचौली हम।
जिसकी सारी कटी लकीरें
ऐसी एक हथेली हम।
२४ मार्च २०१४ |