द्वन्द्व सिरहाने खड़ा
तृण हुआ है बोझ मन का,
द्वन्द्व सिरहाने खड़ा है।।
मौज में बैठे रहे
आहूत-अभ्यागत सभी,
अग्नि में स्वाहा हुआ है
इक तथागत ही अभी।
मंत्र पूजित सिन्धुघाटी में
कहीं मुर्दा गड़ा है।।
तेज झोंका चल रहा है
धूप पानी बन्द है,
पंखुरी की भित्तियों में
मन-भ्रमर निस्पंद है।
काल-जल की त्रासदी में
युग-मगर कितना बड़ा है।।
जब समय की मुट्ठियाँ भी
आप ही कस जाएँगी,
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ तब
सीढ़ियाँ बन जाएँगी।
अंकुरण के दूध में ही-
ज़हर का छींटा पड़ा है।।
हौसले भी पस्त हैं
औ' प्रेरणा झुलसी हुई है,
मंत्रणा हर यंत्रणा से
आज तक उलझी हुई है।
चेतना का मौन चेतक
अस्तबल में क्यों अड़ा है।।
बाँध परिचय-पत्र में
उत्तम विशेषण के पुलिन्दे,
घात में बैठे शिकारी,
देखकर नन्हे परिन्दे।
इक तमाचा पंछियों के
गाल पर किसने जड़ा है।।
सत्य को अभिशप्त करके
कील ठोंकी जा रही है,
इस क्षितिज पर लाल रेखा-
धुंध बन मंडरा रही है।
रिस रहा पौरुष का पानी-
द्वार पर फूटा घड़ा है।।
३० जून २००८
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