बेरहम है वक्त
बेरहम है वक्त
हो रही है चित्रपट-सी
भंगिमाएँ प्यार की,
आँख में अभिव्यक्ति लहरे
दर्द के संसार की।
लाजवन्ती मानकर
जो तर्जनी पीछे मुड़ी,
वह स्वयं आवृत्तियों से
भँवर-सी औचक जुड़ी,
प्रश्न चर्चामुक्त अब तो
अतिक्रमण-विस्तार की।
शीश पर बाँधे कफन
इतिहास की परछाइयाँ,
खोजती हैं बुलबुलों के
गाँव की अमराइयाँ,
बेरहम है वक़्त जैसे
धार हो तलवार की।
हम टंगे हैं खूँटियों पर
रेशणी बनकर कमीज,
तोड़ जाती बाजुओं तक
सीयने जिनकी तमीज़,
यह ग्रहण है ज़िंदगी पर
राहु के परिवार की।
३० जून २००८
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