बारूदी फ़सलों से...
गीतों की गन्ध
कौन हवा उड़ा ले गई,
बारूदी फ़सलों से-
खेत लहलहा गए।
अनजाने बादल,
मुँडेरों पर छा गए।।
मर्यादा लक्ष्मण की
हम सबने तोड़ दी,
सोने के हिरनों से
गाँठ नई जोड़ दी,
रावण के मायावी,
दृश्य हमें भा गए।।
स्मृति की गलियों में,
कड़वाहट आई है,
बर्फ़ीली घाटी की
झील बौखलाई है,
विष के संवादों के
परचम लहरा गए।।
बुलबुल के गाँव धूप
दबे पाँव आती है,
बरसों से वर्दी में
ठिठुर दुबक जाती है,
अन्तस के पार तक
चिनार डबडबा गए।।
टेसू की छाती पर
संगीनें आवारा,
पर्वत के मस्तक पर
लोहित है फव्वारा,
राजकुँवर सपनों में
हिचकोले खा गए।।
३० जून २००८
|